स्मृतियों का धुंधलापन

स्मृतियों का धुंधलापन


कहाँ से लाऊँ वह कहानी, जो दिल की थाह न पा सके,
जिसमें बसते हैं सपने, जो जागकर फिर से खो सके।
फूलों की मुस्कान झूठी, कांटों की है सच्ची बात,
वही चुभन बनकर रहती है, हर पथ में हर दिन रात।

बिखरी हुई इन स्मृतियों का अब मैं क्या रंग दिखाऊँ,
जो बीत गईं वे बातें मैं फिर से कैसे दोहराऊँ।
आँखों में जो चित्र खिंचे हैं, वे धुँधले अब हो चले,
स्मृतियों के साए में जीवन का यथार्थ अब छले।

मधुर हँसी की उन गूँजों में, कोई विषाद छुपा होगा,
वो हँसता मुखड़ा भी कभी तो आँसुओं से भरा होगा।
क्योंकि जीवन की इस धारा में, सब कुछ नहीं सरल है,
हर मुस्कान के पीछे भी, कोई छुपी हुई व्यथा है।

इस छोटे से जीवन की अब मैं क्या कहानियाँ बुनूँ,
जो सुनकर भी न समझ सके, वो बातें कैसे सुनूँ।
सच है, मौन ही भला, कहूँ न कुछ, सुनूँ न कुछ,
बस दिल की गहराइयों में, अपनी व्यथा छुपाए रखूँ।


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