वह सींचती खेत

वह सींचती खेत


देखा उसे मैंने सुबह के उजाले में—
वह सींचती खेत।

पैरों में चप्पल घिसी हुई,
माथे पर बिखरे हुए पसीने के मोती,
और हाथों में पकड़ी एक पुरानी बाल्टी,
जिसमें भरी थी उम्मीद की एक बूँद।

सूरज की पहली किरण,
जब धरा को चूमती,
उसकी आंखों में दिखती थी
एक नई शुरुआत की रौशनी।

सूखी मिट्टी,
पानी की प्यास में तड़पती,
मगर वह हारी नहीं,
चलते रहे उसके कदम।

हर बूँद में थी उसकी मेहनत,
हर कतरा में उसकी आशा,
और एक दबी हुई आवाज़—
‘मैं सींचती खेत।’


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