रात की चुप्प में
सोचा करता हूँ रात की चुप्प में,
सपनों की मीठी या कड़वी धुनों में,
जीवन की राह की कठिनाइयों से,
ज्यों ही हर दर्द को सोचता हूँ,
मन को मैं ऐसे ही बहलाता हूँ।
राह की दरारों में उलझे हुए,
सपनों के बिखरे हुए अंश में,
खुद से न करता हूँ कोई दया,
अपने आँसू से ही दिल को धोता हूँ,
मन को ऐसे ही बहलाता हूँ।
सिसकियाँ जो निकलती हैं गहराई से,
न जाने कितनी रातें बीती हैं,
लाज नहीं मुझको, दर्द भी साधा है,
देवों के बीच अगर मैं हूँ कुछ कमजोर,
फिर भी मन को ऐसे ही बहलाता हूँ।
हाँ, ऐसे ही मन को बहलाता हूँ।