मेला और मन की खोज

मेला और मन की खोज


जीवन की भीड़-भाड़ में कब ठहर पाया

कभी एक पल बैठ, सोच पाऊँ सुकून से,

क्या जो किया, कहा, सही था, या कुछ किया ग़लत।

जिस दिन मन की चुप्पी ने बोलना शुरू किया,

मैं देखता हूँ खुद को जीवन के मेले में,

हर कोई व्यस्त अपनी ही धुन में है,

हर चेहरा अपने ही रंग में रंगा है,

कुछ देर मैं हक्का-बक्का खड़ा रहा,

कहाँ आया हूँ, क्या करूँ, कौन सा मार्ग चुनूँ?

फिर अचानक, एक धक्का लगा, लहर में बहने लगा,

मेले के शोर में शामिल हो गया,

क्या बाहरी दुनिया का हंगामा कम था,

जो मन के अंदर भी मंथन होने लगा,

जो किया, वही करने की आदत बनी,

जो कहा, वही मन की धारा बन गई।

जीवन की भीड़-भाड़ में कब ठहर पाया

कभी एक पल बैठ, सोच पाऊँ सुकून से,

क्या जो किया, कहा, सही था, या कुछ किया ग़लत।

मेला जितना चमकदार और रंगीन था,

मन के भीतर उतनी ही बेचैनी थी,

जितनी अधिक पाई चीज़ों की लालसा,

उतनी ही छोटी रही अपनी थैली की सूरत,

जितना दिखावा बढ़ा, उतना ही खोखला लगा,

क्रय-विक्रय की ठंडक में अब दिल नहीं लगता,

सिर्फ़ एक छीना-झपटी का खेल था यहाँ,

अब मुझसे पूछते हैं, क्या बतलाऊँ सब,

क्या मैं बेकार ही यहाँ बिखरता गया,

जिसे समझा था बहुमूल्य रत्न, वह निकला मिट्टी,

जिसे आँसू समझा, वह निकला मोती।

जीवन की भीड़-भाड़ में कब ठहर पाया

कभी एक पल बैठ, सोच पाऊँ सुकून से,

क्या जो किया, कहा, सही था, या कुछ किया ग़लत।

मैं कितना भी भूलूँ, भटकूँ या खोया रहूँ,

एक मंज़िल है, जो मुझे बुलाती रहती है,

मेरे कदम भले ही ऊँच-नीच होते रहें,

हर पल वह मेरे पास आती रहती है,

मैं विधि का आभारी हूँ बहुत सारी बातों के लिए,

पर सबसे अधिक कृतज्ञता उसकी जो रास्ता दिखाती है,

संसार की धारा में तैरते हुए भी, जीवन की राह पर,

मैं अपने सफर को पहचानता हूँ, बिना रुके,

जीवन की भीड़-भाड़ में कब ठहर पाया,

कभी एक पल बैठ, सोच पाऊँ सुकून से,

क्या जो किया, कहा, सही था, या कुछ किया ग़लत।


Leave a Comment