जीवन की दौड़-धूप में
जीवन की दौड़-धूप में कब वक्त मिला,
कभी बैठकर सोचा, क्या पाया, क्या खोया,
हर रोज़ की उलझन में उलझा रहा मन,
क्या सही, क्या गलत, कभी नहीं तौला।
जब आँखें खुलीं, देखा चारों ओर भीड़ थी,
हर कोई उलझा था अपनी-अपनी चिंता में,
मंजिलें अनजानी, राहें थीं धुंधली,
चाहतें तो थीं, पर मंज़र धुंधले थे।
हर कदम पर ठोकरें मिलीं,
हर मोड़ पर नया सवाल खड़ा,
जीवन की इस अंधी दौड़ में,
कभी सोचा ही नहीं, किस तरफ मुड़ा।
कभी वक्त मिला तो दिल से पूछा,
क्या जो किया, वह सही था?
क्यों अपने ही फैसलों पर शक किया,
क्यों अनजाने डर से भागता रहा?
अब जब रुका हूँ, देखा है साफ़,
हर एक कदम का है हिसाब,
कुछ खोया, कुछ पाया,
यही तो जीवन की है किताब।
जीवन की दौड़-धूप में कब वक्त मिला,
कभी बैठकर सोचा, क्या पाया, क्या खोया,
हर रोज़ की उलझन में उलझा रहा मन,
क्या सही, क्या गलत, कभी नहीं तौला।