अडिग प्राण: धरा का गौरव

अडिग प्राण: धरा का गौरव


मेरे पर्वत! ओ अडिग प्राण,
तू है धरती का दिव्य गान।
अचल, अभेद्य, तू अनंत,
धरा की चिर धरोहर, शांत।

युगों से खड़ा तू मौन, महान,
तू देख रहा है समय का ज्ञान।
तूने सहा कितना तूफान,
फिर भी खड़ा है, अडिग प्राण।

ओ ऊँचाई के उस सरताज,
तू है धरा का गौरव साज।
तूने देखा हर ऋतु का रंग,
फिर भी खड़ा है तू, अचल अंग।

तेरे चरणों में बहती नदियाँ,
तेरे आंचल में हैं धरा की सदियाँ।
तूने दिया इस भूमि को छाँव,
तेरी ही गोद में खिलते हैं गाँव।

तू मौन है, पर जीवंत सत्य,
तू है हमारे लिए अनमोल मणि।
तेरे ही आँगन में बसा हमारा संसार,
तेरे बिना है अधूरा हमारा आकार।

ओ मेरे पर्वत, मेरे विशाल,
तू है धरा का अमर कपाल।
तेरे चरणों में है हमें विश्वास,
तू है हमारी धरोहर, हमारी सांस।


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